जनसम्पर्क विभाग - जन-जातियाँ

मध्यप्रदेश की जन - जातियाँ

विशेष पिछड़ी जन जातियां और उनके क्षेत्र:

"दि शेड्यूल्ड परियाज एंड ट्राइब्स कमीशन" ने जनजातियों को चार वर्गों से बांटा है। इनमें से सबसे अविकसित जनजातियों के रहवासी क्षेत्रों को "शेड्यूल्ड एरिया" या "अनुसूचित क्षेत्र" घोषित कर दिया गया है। मध्यप्रदेश में सात विशेषʔपिछड़ी जनजातियां हैं। इनका रहन-सहन, खान-पान, आर्थिक स्थिति, शिक्षा का प्रतिशत जनजातियों के प्रादेशिक औसत से कम है।

इस कारण भारत सरकार ने इन्हें "विशेष पिछड़ी जनजातियों" के वर्ग में रखा है । इस पुस्तक में इनका वर्णन निम्नालिखित क्रम दिया जा रहा हैं।

बैगा (बैगायक क्षेत्र, मंडला जिला)

बैगा आदिवासी मध्यप्रदेश के मुख्यत: तीन जिलों-मंडला, शहडोल एवं बालाघाट में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से बैगा मध्यप्रदेश के मूल आदिवासी भी कहे जा सकते हैं। बैगा शब्द अनेकार्थी है। बैगा जाति विशेष का सूचक होने के साथ ही अधिकांश मध्यप्रदेश में "गुनिया" और "ओझा" का भी पर्याय है।

बैगा लोगों को इसी आधार पर गलती से गोंड भी समझ लिया जाता है जबकि एक ही भौगोलिक क्षेत्र यह सही है कि बैगा अधिकांशत: गुनिया और ओझा होते हैं किन्तु ऐसा नहीं है कि गुनिया और ओझा अनके वितरण क्षेत्र में बैगा जाति के ही पाए जाते हैं।में पायी जाने वाली ये दोनों जातियां क्रमश: कोल और द्रविड़ जनजाति समूहों से सम्बद्ध हैं। इन दोनों जातियों में विवाह संबंध होते हैं क्योंकि दोनों जातियां हजारों वर्षों से साथ-साथ रह रही हैं। गोंडों के समान ही बैगाओं में भी बहुत से सामाजिक संस्तर है। राजगोंडों के समान ही बैगाओं में भी विंझवार बड़े जमींदार हैं और उन्हें राजवंशी होने की महत्ता प्राप्त हैं। मंडला में बैगाओं का एक छोटा समूह भरिया बैगा कहलाता है। भारिया बैगाओं को हिन्दू पुरोहितों के समकक्ष ही स्थान प्राप्त है। ये हिन्दू देवताओं की ही पूजा सम्पन्न करते हैं, आदिवासी देवताओं की नहीं। मंडला जमीन की सीमा संबंधी विवाद का बैगाओं द्वारा किया गया निपटारा गोंडों को मान्य होता है।

स्मिल और हीरालाल (1915) बैगाओं को छोटा नागपुर की आदि जनजाति बुइयाँ की मध्यप्रदेश शाखा, जिसे बाद में बैगा कहा जाने लगा, मानते हैं। जहां तक शाब्दिक अर्थ का प्रश्न है भुईयां (भुई, पृथ्वी) और भूमिज (भूमि-पृथ्वी) समानार्थी हैं एवं "भूमि" से संबंधित अर्थ बोध कराते हैं। यह मुमकिन है कि मध्यप्रदेश के इन आदि बांशन्दों को बाद में आए हुए गोंडों ने बैगा को आदरास्पद स्थान दे दिया है।

इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भुईयां की इस (बैगा) शाखा ने छोटा नागपुर से सर्वप्रथम छत्तीसगढ़ में प्रवेश किया हो और कालान्तर में अन्य आदिवासियों के द्वारा ये मंडला और बालाघाट के दुर्गम वनों में खदेड़ दिए गए हों। मंडला जिले का "बैगायक" क्षेत्र आज भी सघन वनों से पूर्ण है। इस क्षेत्र के बैगा आज भी अति जंगली जीवन बिता रहे हैं। इनकी तुलना बस्तर के माड़िया लोगों से की जाती है। मंडला के सघन वनों में रहने वाले बैगाओं की बोली में पुरानी छत्तीसगढ़ी का प्रभाव है। बालाघाट के बैगाओं की बोली में भी छत्तीसगढ़ी का प्रभाव स्वाभाविक रूप से देखने को मिलता है।

ग्रिथर्सन का यह कहना अर्थ रखता है कि पहले बैगा अधिकांशत: छत्तीसगढ़ के मैदान में फैले थे और वहां से ही ये हैहयवंशी राजपूतों द्वारा दुर्गम क्षेत्रों की ओर भगाए गए। भुइयां के अतिरिक्त, भनिया लोगों का भी संबंध बैगाओं से जोड़ा जाता है। बैगाओं की एक शाखा मैना राजवंश ने किसी समय उड़ीसा में महानदी के दक्षिण में बिलहईगढ़ क्षेत्र पर शासन किया था। मंडला में ये कहीं पर "भुजिया" कहलाते हैं जो "भुइयाँ" का ही तत्सम शब्द है।

बिंझवार लगभग पूरी तौर से गैर आदिवासी हो चुके हैं। वे गोमांस नही खाते बिंझवार, नरोटिया और भारोटिया में रोटी-बेटी संबंध प्रचलित है, किन्तु इसमें स्थान-भेद से परिवर्तन पाए जाते हैं, जैसे साथ में भोजन करने की मनाही है, अर्थात तीनों में रोटी-बेटी के संबंधों का सीमित प्रचलन है। बालाघट में ऐसा कोई बंधन नहीं है। सभी उपजातियों में गोंड के प्रचलित गोत्र नाम अपितु सामान्य नाम भी गोंडों और बैगाओं में समान पाए जाते हैं। यह समानता दोनों आदिवासी जातियों के साथ-साथ रहने के कारण ही पायी जाती है। पुराने जमाने में दोनों आदिवासी जातियों में विवाह आम बात थी। एक गोंड युवती के बैगा से विवाह करने पर वह समान् स्वीकृत बैगा महिला मान ली जाती थी, किन्तु बिंझवार, भारोदिया और नरोटिया अब स्वयं अन्य बैगा उपजातियों में भी विवाह नहीं करते अस्तु गोंडों से विवाह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह तथ्य हमें राजगोंडों और राजवंशी गोंडों में भी मिलता है। दरअसल विकास की प्रक्रिया में आदिवासी जातियों में स्वाभाविक रूप से सामाजिक स्तर बन गए भले ही इसके पीछे धार्मिक बदलाव उतना नहीं जितना आर्थिक बदलाव है।

बैगा कृष्णवर्णीय और रूक्ष (कांतिहीन) शरीर वाले होते हैं। सिर के बालों को काटने का रिवाज नहीं है। कभी-कभी कपाल के ऊपर के बाल कुछ मात्रा में अवश्य काट लिए जाते हैं। बालों को इकट्ठा कर पीछे की ओर चोटी डाल ली जाती है। ये वर्ष में गिने चुने अवसरों पर ही स्नान करते हैं। बैगा युवतियाँ आकर्षक होती हैं। उनके चेहरे और आंखों की बनावट सुन्दर कही जा सकती है। इन्हें अन्य आदिवासी स्त्रियों से अलग पहचाना जा सकता है। यद्यपि गोंड और बैगा जंगलों में साथ रहते हैं, तथापि गोंडों में द्रविड़ विशेषताएं और बैगाओं में मुंडा विशेषताएं परिलक्षित होती हैं।

पाताल कोट के भारिया

भारिया जनजाति का विस्तार क्षेत्र मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, सिवनी, मण्डला और सरगुजा जिले हैं। इस अपेक्षाकृत बड़े भाग में फैली जनजाति का एक छोटा सा समूह छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट नामक स्थान में सदियों से रह रहा हैं। पातालकोट स्थल को देखकर ही समझा जा सकता है कि यह वह स्थान है जहां समय रूका हुआ सा प्रतीत होता है। इस क्षेत्र के निवासी शेष दुनिया से अलग-थलग एक ऐसा जीवन जी रहे हैं जिसमें उनकी अपनी मान्यताएं हैं, संस्कृति और अर्थ-व्यवस्था है, जिसमें बाहर के लोग कभी-कभार पहुंचते रहते हैं किन्तु इन्हें यहां के निवासियों से कुछ खास लेना-देना नहीं। पातालकोट का शाब्दिक अर्थ है पाताल को घेरने वाला पर्वत या किला। यह नाम बाहरी दुनिया के लोगों ने छिंदवाड़ा के एक ऐसे स्थान को दिया है जिसके चारों ओर तीव्र ढाल वाली पहाड़ियां हैं। इन वृत्ताकार पहाड़ियों ने मानों सचमुच ही एक दुर्ग का रूप रख लिया है। इस अगम्य स्थल में विरले लोग ही जाते हैं। ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में एक ही जनजाति रहती है। वरन सच तो यह है कि पातालकोट 90 प्रतिशत आबादी भारिया जनजाति की है, शेष 10 प्रतिशत में दूसरे आदिवासी हैं। इस स्थल की दुर्गमता ने ही यहां आदिवासी जीवन और संस्कृति को यथावत रखने में सहायता दी है।

1981 की जनगणना में पातालकोट में भारिया को "जंगलियों के भी जंगली" कहा गया था। भारिया शब्द का वास्तविक अर्थ ज्ञान नहीं है। कुछ लोगों का मत है कि अज्ञातवास में जब कौरवों के गुप्तचर, पांडवों को ढूंढ रहे थे तब अर्जुन ने अभिमंत्रित र्भरूघास के शस्त्र देकर इन्हें गुप्तचरों से लड़ने को भेज दिया। इन्होंने विजय प्राप्त की और बत से इन्हें भारिया नाम मिला। इस किंवदन्ती में कितनी सच्चाई है, यह तो खोज की ही बात है।

1881 से 1981 तक की शताब्दी में भारिया जनजाति के इस समूह में मामूली फर्क आया है, वह भी तब जबकि पिछले पच्चीस वर्षों से मध्यप्रदेश सरकार ने इस क्षेत्र की उन्नति के लिए लगातार प्रयास किए। यहां तक कि पूरे पातालकोट क्षेत्र को विशेष पिछड़ा घोषित कर दिया गया है।

पातालकोट की कृषि आदिम स्थाई कृषि है। कुल कृषि भूमि का 15 प्रतिशत खरीफ फसलों के अन्तर्गत है। प्रमुख फसलें धान, कोदो और कुटकी हैं। इन फसलों की कटाई अक्टूबर तक हो जाती है। यद्यपि रबी यहां की फसल नहीं है किन्तु घर के आसपास के खाली क्षेत्र में चना बो दिया जाता है। आदिवासियों के अनुसार चने की यह छोटी फसलें भी अत्यंत श्रम साध्य हैं, क्योंकि पातालकोट में बंदरों का उत्पात काफी है और मौका पाते ही वे फसल को तबाह करने से नहीं चूकते। गेहूं भी बोया जाता है पर इसका उत्पादन नगण्य है। पातालकोट में गेहूं और चना नगद फसलें हैं क्योंकि इस पूरे उत्पाद को बेच दिया जाता है ताकि कुछ नकद हाथ लग सके तथा अन्य जरूरत की वस्तुएं खरीदी जा सकें।

कृषि के उपरान्त खेतों में मजदूरी करना प्रमुख कार्य है। पातालकोट के आसपास गोंडों के खेत फैले हुए हैं। भारिया पातालकोट से आकर इनके खेतों में भी काम करते हैं। एक अनुमान के अनुसार भारिया, गोंडों के खेतों 60-70 दिनों से अधिक कार्य नहीं करते। शासकीय विकास कार्यों में भी वे मजदूरी का काम कर लेते हैं।

कोरबा

कोल प्रजाति की जनजाति मध्यप्रदेश में छोटा नागपुर से ही आयी है। यह बिलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिला में प्रमुख रूप से पायी जाती है। डालटन उनके बारे में लिखता है, असुरों के साथ मिश्रित तथा उनसे बहुत अलग भी नहीं, सिवा इसके कि ये यहां अधिकतर कृषक हैं। वे वहां के धातु गलाने का काम करने वाले लोग हैं। हम सबसे पहले कोरबा से मिलते हैं जो कि उक्त नाम के अन्तर्गत "कालेग्मिन श्रृंखला" की टूटी हुई कड़ी है। यही जनजाति पश्चिम की ओर सरगुजा, रायपुर तथा पालाभाड़ा पठार पर से होती हुई अधिक संगठित जनजाति कुर तथा रीवा के मुसाइयों तक पहुंचती है। सेन्ट्रल प्राविन्स में वह विन्ध्याचल से सतपुड़ा तक पहुंच जाती है।

बहुत ही पिछड़ी जनजातियों में से एक है। यह जनजाति उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर, मध्यप्रदेश के जशपुर और सरगुजा और बिहार के पलामू जिलों में मुख्य रूप से पायी जाती है। उत्तरप्रदेश के कोरबा का मजूमदार और पलामू के कोरबा का सण्डवार नामक विद्वानों ने विस्तृत अध्ययन किया था। पहाड़ों में रहने वाले कोरबा पहाड़ी कोरबा कहलाते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों के कोरबा डीह कोरबा कहलाते हैं। मिर्जापुर के कोरबा अपने को डीह कोरबा तथा पहाड़ी कोरबा के अतिरिक्त डंड कोरबा श्रेणियां बताते हैं।

शरीर

कोरबा कम ऊंचाई के तथा काले रंग के लोग हैं। ये मजबूत यष्टि वाले लोग हैं किन्तु उनके पैर शरीर की तुलना में कुछ छोटे दिखई पड़ते हैं। पुरूषों की औसत ऊंचाई 5 फिट 3 इंच तथा महिलाओं की 4 फिट 9 इंच पायी जाती है। पहाड़ी कोरबाओं की दाढ़ी और मूंछों के अलावा शरीर के बाल भी बड़े रहते हैं। साधारणत: वे कुरूप दिखलाई देते हैं।

सामाजिक संगठन

इनकी अपनी पंचायत है जिसे "मैयारी" कहते हैं। सारे गांव के कोरबाओं के बीच एक प्रधान होता है जिसे 'मुखिया" कहते हैं। बड़े-बुढ़े तथा समझदार लोग पंचायत के सदस्य होते हैं। पंचायत का फैसला सबको मान्य होता है। इनका घर बहत ही साधारण होता है। ये जंगल में घास-फूस से बने छोटे-छोटे घरों में रहते हैं। जो लोग गांव में बस गए हैं, वे बांस और लकड़ी के घर बनाते और खपरैल तथा पुआल से छाते हैं।

पहाड़ी कोरबा पहले बेआरा खेती (शिफ्टिंग कल्टिवेशन) भी करते थे, लेकिन सरकारी नियमों के तरह इस प्रकार की खेती पर बंदिश है। डीह कोरबा साधारण खेती करते हैं। कोरबा जनजाति की एक उपजाति कोरकू है और जिस तरह सतपुड़ा की दूसरी कोरकू जनजाति मुसाई भी कहलाती है उसी तरह कोरकू भी "मुसाई" नाम से पहचाने जाते हैं। जिनका शाब्दिक अर्थ है चोर या डकैत। कूक कोरबा और कूक को एक ही जनजाति के दो उपभेद मानते हैं। जबकि ग्रिमर्सन भाषा के आधार पर उनकी भाषा को असुरों के अधिक निकट पाते हैंं। कोरबा लोगों में "मांझी" सम्मान सूचक पदवी मानी जाती है। संथालों में भी ऐसा ही है।

पहाड़ी कोरबा मध्यप्रदेश की आदिम जातियों में से है जिसका जीवन-स्तर तथा विकास अत्यंत ही प्रारंभिक व्यवस्था में हैं। यह उनके जीवन के प्रत्येक कार्यकलापों में देखा जा सकता है। रहन-सहन के मामले में वे शारीरिक स्वच्छता से कोसों दूर हैं। उनके सिर के बाल मैल के कारण रस्सी जैसी लटाओं में परिवर्तित हो जाती है। महिलाओं के कपड़े निहायत गंदे रहेते हैं। शरीर के अंग प्रत्यंगों पर मैल की परत पायी जाती है। महिलाएं आभूषण के आधार पर केवल लाल रंग की चिन्दियां सिर पर बांध लेती है। उनकी सामाजिक मान्यताएं भी अन्य आदिवासियों की तुलना में काफी पिछड़ी हुई है , जैसे कहा जाता है कि पहाड़ी कोरबा कुछ परिस्थितियों में बहन से भी विवाह कर सकते हैं। पहाड़ी कोरबा में विवाह के लिए माँ-बाप की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।

शिकार प्रियता के साथ शिकार से संबंधित उनके अंधविश्वास ओर टोने-टोटके भी हैंं, जैसे शिकार प्रियता के साथ शिकार से संबंध्धित उनके अंधविश्वास ओर टोने-टोटके भी हैंं, जेसे शिकार यात्रा के समय बच्चे का रोना अशुभ माना जाता है। कुण्टे महोदय के अनुसार शिकार यात्रा पर जाते समय एक व्यक्ति ने अपने दो वर्षीय बच्चे को पत्थर पर पटक दिया क्योंकि उसने रोना चालू कर दया था। इसी भांति वे शिकार की यात्रा के पूर्व मुर्गों के सामने अन्न के कुछ दाने छिटका देते हैं। यदि मुर्गों ने ठोस दाने को पहले चुना तो यात्रा की सफलता असंदग्धि मानी जाती है। कोरबा के लोगों में किसी प्रकार के आदर्श को महत्व नहीं दिया जाता, जंगल का कानून ही उनकी मानसिकता है। शिकार यात्रा के समय बच्चे का रोना अशुभ माना जाता है। कुण्टे महोदय के अनुसार शिकार यात्रा पर जाते समय एक व्यक्ति ने अपने दो वर्षीय बच्चे को पत्थर पर पटक दिया क्योंकि उसने रोना चालू कर दया था। इसी भांति वे शिकार की यात्रा के पूर्व मुर्गों के सामने अन्न के कुछ दाने छिटका देते हैं। यदि मुर्गों ने ठोस दाने को पहले चुना तो यात्रा की सफलता असंदग्धि मानी जाती है। कोरबा के लोगों में किसी प्रकार के आदर्श को महत्व नहीं दिया जाता, जंगल का कानून ही उनकी मानसिकता है।

इन क्षेत्रों में जलाऊ लकड़ी का विशेष महत्व है। शीतकाल में आदिवासी लकड़ जलाकर ही उष्णता प्राप्त करते हैं। नगद पैसा उन्हें अधिकतर अचार की चिरौंजी से मिलता है। चिरौंजी की मांग तथा मूल्य दोनों में लगातार वृद्धि हो रही है। ये लोग जड़ी-बूटियों को बेचना तो दूर उनके बारे में किसी अन्य को बताना भी पसंद नहीं करते।

कमार

1961 और 1971 में की गई कमारों की जनसंख्या का जिलेवार विवरण प्राप्त है। जिसके अनुसार कमार लगभग 10 प्रतिशत ग्रामीण अधिवासी में रहने वाले आदिवासी हैं।

रायपुर जिले के कमार विशेष पिछड़े माने गए हैं। इस जिले में वे बिंद्रावनगढ़ और धमतरी तहसील में पाए जाते हैं। कमार विकास अभिकरण का मुख्यालय गरिमा बंद में है जिसके अंतर्गत घुरा, गरियाबंद, नातारी ओर मैनपुर विकास खंड कमारों की मूलभूमि है जहाँ से वे बाहर गए या मजदूरों के रूप में ले जाए गए।

19वीं सदी तक कमार अत्यंत पिछड़ी हुई अवस्था में थे।उनमें से कुछ विवरण अब संदेहास्पद लगने लगे, जैसे कतिपय अंग्रेजी लेखकों ने इन्हें गुहावासी बतलाया है। आज के समय में मध्यप्रदेश के वनों या पर्वतों में कोई भी आदिवासी समूह गुहावासी नहीं है। लिखे गए उपयुक्त अंशों में वर्तमान में उनके व्यवसायों मेंटोकरी बनाना भी सम्मिलित हैं। जिसमें उन्हें बसोरों से प्रतिस्पर्धा करना पड़ती है। शासकीय सहायता योजना के अंतर्गत उन्हें कम दामों में बांस उपलब्ध कराया जाता है और चटाईयाँ एवं टोकरियाँ की सीधे ही खरीद की जाती हैं। बदलते जमाने में कमारों ने कृषि करना भी सीख लिया है और 1981 में 444 कमार परिवारों के पास स्वयं की छोटी ही सही कृषि भूमि थी। कमारों के दो उप भेद है-बुधरजिया और मांकडिया। बुधरजिया उच्च वर्ग के माने जाते हैं, जबकि मांकडिया निम्न वर्ग के। ये बंदरों का मांस खाते थे। दोनों ही वर्ग कृषि करने लगे हैं।