बैगा
(बैगायक
क्षेत्र,
मंडला
जिला)
बैगा
आदिवासी
मध्यप्रदेश
के
मुख्यत:
तीन
जिलों-मंडला,
शहडोल
एवं
बालाघाट
में
पाए
जाते
हैं।
इस
दृष्टि
से
बैगा
मध्यप्रदेश
के
मूल
आदिवासी
भी
कहे
जा
सकते
हैं।
बैगा
शब्द
अनेकार्थी
है।
बैगा
जाति
विशेष
का
सूचक
होने
के
साथ
ही
अधिकांश
मध्यप्रदेश
में "गुनिया"
और "ओझा"
का भी
पर्याय
है।
बैगा
लोगों
को
इसी
आधार
पर
गलती
से
गोंड
भी
समझ
लिया
जाता
है
जबकि
एक ही
भौगोलिक
क्षेत्र
यह
सही
है कि
बैगा
अधिकांशत:
गुनिया
और
ओझा
होते
हैं
किन्तु
ऐसा
नहीं
है कि
गुनिया
और
ओझा
अनके
वितरण
क्षेत्र
में
बैगा
जाति
के ही
पाए
जाते
हैं।में
पायी
जाने
वाली
ये
दोनों
जातियां
क्रमश:
कोल
और
द्रविड़
जनजाति
समूहों
से
सम्बद्ध
हैं।
इन
दोनों
जातियों
में
विवाह
संबंध
होते
हैं
क्योंकि
दोनों
जातियां
हजारों
वर्षों
से
साथ-साथ
रह
रही
हैं।
गोंडों
के
समान
ही
बैगाओं
में
भी
बहुत
से
सामाजिक
संस्तर
है।
राजगोंडों
के
समान
ही
बैगाओं
में
भी
विंझवार
बड़े
जमींदार
हैं
और
उन्हें
राजवंशी
होने
की
महत्ता
प्राप्त
हैं।
मंडला
में
बैगाओं
का एक
छोटा
समूह
भरिया
बैगा
कहलाता
है।
भारिया
बैगाओं
को
हिन्दू
पुरोहितों
के
समकक्ष
ही
स्थान
प्राप्त
है।
ये
हिन्दू
देवताओं
की ही
पूजा
सम्पन्न
करते
हैं,
आदिवासी
देवताओं
की
नहीं।
मंडला
जमीन
की
सीमा
संबंधी
विवाद
का
बैगाओं
द्वारा
किया
गया
निपटारा
गोंडों
को
मान्य
होता
है।
स्मिल
और
हीरालाल
(1915)
बैगाओं
को
छोटा
नागपुर
की
आदि
जनजाति
बुइयाँ
की
मध्यप्रदेश
शाखा,
जिसे
बाद
में
बैगा
कहा
जाने
लगा,
मानते
हैं।
जहां
तक
शाब्दिक
अर्थ
का
प्रश्न
है
भुईयां
(भुई,
पृथ्वी)
और
भूमिज
(भूमि-पृथ्वी)
समानार्थी
हैं
एवं "भूमि"
से
संबंधित
अर्थ
बोध
कराते
हैं।
यह
मुमकिन
है कि
मध्यप्रदेश
के इन
आदि
बांशन्दों
को
बाद
में
आए
हुए
गोंडों
ने
बैगा
को
आदरास्पद
स्थान
दे
दिया
है।
इस
संभावना
से
इंकार
नहीं
किया
जा
सकता
है कि
भुईयां
की इस (बैगा)
शाखा
ने
छोटा
नागपुर
से
सर्वप्रथम
छत्तीसगढ़
में
प्रवेश
किया
हो और
कालान्तर
में
अन्य
आदिवासियों
के
द्वारा
ये
मंडला
और
बालाघाट
के
दुर्गम
वनों
में
खदेड़
दिए
गए
हों।
मंडला
जिले
का "बैगायक"
क्षेत्र
आज भी
सघन
वनों
से
पूर्ण
है।
इस
क्षेत्र
के
बैगा
आज भी
अति
जंगली
जीवन
बिता
रहे
हैं।
इनकी
तुलना
बस्तर
के
माड़िया
लोगों
से की
जाती
है।
मंडला
के
सघन
वनों
में
रहने
वाले
बैगाओं
की
बोली
में
पुरानी
छत्तीसगढ़ी
का
प्रभाव
है।
बालाघाट
के
बैगाओं
की
बोली
में
भी
छत्तीसगढ़ी
का
प्रभाव
स्वाभाविक
रूप
से
देखने
को
मिलता
है।
ग्रिथर्सन
का यह
कहना
अर्थ
रखता
है कि
पहले
बैगा
अधिकांशत:
छत्तीसगढ़
के
मैदान
में
फैले
थे और
वहां
से ही
ये
हैहयवंशी
राजपूतों
द्वारा
दुर्गम
क्षेत्रों
की ओर
भगाए
गए।
भुइयां
के
अतिरिक्त,
भनिया
लोगों
का भी
संबंध
बैगाओं
से
जोड़ा
जाता
है।
बैगाओं
की एक
शाखा
मैना
राजवंश
ने
किसी
समय
उड़ीसा
में
महानदी
के
दक्षिण
में
बिलहईगढ़
क्षेत्र
पर
शासन
किया
था।
मंडला
में
ये
कहीं
पर "भुजिया"
कहलाते
हैं
जो "भुइयाँ"
का ही
तत्सम
शब्द
है।
बिंझवार
लगभग
पूरी
तौर
से
गैर
आदिवासी
हो
चुके
हैं।
वे
गोमांस
नही
खाते
बिंझवार,
नरोटिया
और
भारोटिया
में
रोटी-बेटी
संबंध
प्रचलित
है,
किन्तु
इसमें
स्थान-भेद
से
परिवर्तन
पाए
जाते
हैं,
जैसे
साथ
में
भोजन
करने
की
मनाही
है,
अर्थात
तीनों
में
रोटी-बेटी
के
संबंधों
का
सीमित
प्रचलन
है।
बालाघट
में
ऐसा
कोई
बंधन
नहीं
है।
सभी
उपजातियों
में
गोंड
के
प्रचलित
गोत्र
नाम
अपितु
सामान्य
नाम
भी
गोंडों
और
बैगाओं
में
समान
पाए
जाते
हैं।
यह
समानता
दोनों
आदिवासी
जातियों
के
साथ-साथ
रहने
के
कारण
ही
पायी
जाती
है।
पुराने
जमाने
में
दोनों
आदिवासी
जातियों
में
विवाह
आम
बात
थी।
एक
गोंड
युवती
के
बैगा
से
विवाह
करने
पर वह
समान्
स्वीकृत
बैगा
महिला
मान
ली
जाती
थी,
किन्तु
बिंझवार,
भारोदिया
और
नरोटिया
अब
स्वयं
अन्य
बैगा
उपजातियों
में
भी
विवाह
नहीं
करते
अस्तु
गोंडों
से
विवाह
करने
का तो
प्रश्न
ही
नहीं
उठता।
यह
तथ्य
हमें
राजगोंडों
और
राजवंशी
गोंडों
में
भी
मिलता
है।
दरअसल
विकास
की
प्रक्रिया
में
आदिवासी
जातियों
में
स्वाभाविक
रूप
से
सामाजिक
स्तर
बन गए
भले
ही
इसके
पीछे
धार्मिक
बदलाव
उतना
नहीं
जितना
आर्थिक
बदलाव
है।
बैगा
कृष्णवर्णीय
और
रूक्ष
(कांतिहीन)
शरीर
वाले
होते
हैं।
सिर
के
बालों
को
काटने
का
रिवाज
नहीं
है।
कभी-कभी
कपाल
के
ऊपर
के
बाल
कुछ
मात्रा
में
अवश्य
काट
लिए
जाते
हैं।
बालों
को
इकट्ठा
कर
पीछे
की ओर
चोटी
डाल
ली
जाती
है।
ये
वर्ष
में
गिने
चुने
अवसरों
पर ही
स्नान
करते
हैं।
बैगा
युवतियाँ
आकर्षक
होती
हैं।
उनके
चेहरे
और
आंखों
की
बनावट
सुन्दर
कही
जा
सकती
है।
इन्हें
अन्य
आदिवासी
स्त्रियों
से
अलग
पहचाना
जा
सकता
है।
यद्यपि
गोंड
और
बैगा
जंगलों
में
साथ
रहते
हैं,
तथापि
गोंडों
में
द्रविड़
विशेषताएं
और
बैगाओं
में
मुंडा
विशेषताएं
परिलक्षित
होती
हैं।